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Introduction to Prasthantrayi (प्रस्थानत्रयी का परिचय)

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Principles of Yoga and practices of healthy living. (❖योग के सिद्धांत ❖स्वस्थ जीवन के लिए योग अभ्यास)

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Yoga: Its origin, history and development. (❖योग की उत्पत्ति ❖योग का इतिहास ❖योग का विकास)

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Yoga: Etymology, definitions (Patanjala Yoga Sutra, Bhagwad Gita & Kathopanishad), aim, objectives and misconceptions. (❖ योग - शब्द व्युत्पत्ति ❖परिभाषा (पातञ्जल योगसूत्र, श्रीमद्भगवद्गीता, कठोपनिषद्) ❖योग का लक्ष्य ❖योग का उद्देश्य ❖योग में भ्रांतियां)

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मन का विकास करो और उसका संयम करो , उसके बाद जहाँ इच्‍छा हो , वहाँ इसका प्रयोग करो-उससे अति शीघ्र फल प्राप्‍ति होगी। यह है यथार्थ आत्‍मोन्‍नति का उपाय। एकाग्रता सीखो , और जिस ओर इच्‍छा हो , उसका प्रयोग करो। ऐसा करने पर तुम्हें कुछ खोना नहीं पड़ेगा। जो समस्‍त को प्राप्‍त करता है , वह अंश को भी प्राप्‍त कर सकता है।  : स्‍वामी विवेकानन्द : योग -  शब्द व्युत्पत्ति   पाणिनि संस्कृत व्याकरण (अष्टाध्यायी) के अनुसार ‘योग’ शब्द “युज्” धातु में “घञ्” प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है।  यह “युज्” धातु दिवादि , रुधादि , एवं चुरादि गणों में अलग अलग अर्थों में प्रयोग की जाती है । १. युज् समाधौ (दिवादिगण) द्वारा समाधि अर्थ में २. युज् संयमने (चुरादिगण) द्वारा संयमन अर्थ में ३. युजिर् योगे (रुधादिगण) द्वारा संयोग अर्थ में उपरोक्त आधार पर ‘योग‘ शब्द की व्युत्पत्ति निम्न प्रकार से की जा सकती है। 1. युज्यते एतद् इति योगः - योग शब्द का अर्थ चित्त की वह अवस्था है जब चित्त की समस्त वृत्तियों में एकाग्रता आ जाती है। यहाँ पर ’योग’ शब्द का उद्देश्य के अर्थ में प्रयोग हुआ है। 2. युज

आचार्य शङ्कर और आचार्य रामानुज

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आचार्य शङ्कर और आचार्य रामानुज  अद्वैत और विशिष्टाद्वैत के राजसिंह  श्रीमद्भगवद्गीता के महानतम भाष्यकार  जनमानस के हृदय के ज्ञानांकुर को निरंतर  पोषित-पुष्पित-पल्लवित करता  इनका एक एक विचार भारतवर्ष के ही नहीं  अपितु मानव मात्र के अथवा यों कहें  जीव मात्र के त्राण को निश्चित  करता   धरा पर त्रिविध बयार की भांति  जीव की चित्तभूमि को सम  करता अनुभवातीत  तुरीय  में  उतरता  है,

मृत्यु

ज्ञान का अभाव ही मृत्यु है। मृत्यु जीवन का वह अभाव है, जो पूर्णता को प्राप्त होकर ही रहेगा और हम जीवन भर इस अभाव को ढ़ोते रहना चाहते हैं। मृत्यु शाश्वत है, पर जीवन की अवहेलना का कारण है। मनुष्य जिस क्षण जन्म लेता है, उसी क्षण उसकी मृत्यु भी तय हो जाती है, या यों कहना ज्यादा सार्थक होगा कि देह को श्वास प्रश्वास की गति निश्चित ही प्राप्त होगी इस विश्वास में भले ही संशय हो, परन्तु यह देह निःश्वास होकर ही रहेगी इसमें कोई संशय नहीं। मृत्यु अनन्त दुःख का साम्राज्य भले हो परन्तु देह को उसकी शासन व्यवस्था में रहना ही होगा, उसकी कर व्यवस्था के नियमों का पालन उसे करना ही होगा। अहो, नकारात्मकता उस राज्य का राजमार्ग, शोक उस राजमार्ग को आच्छादित किये वृक्ष,  रुदन उसका बाज़ार, अश्रु पूर्ण सरोवर में सिसकियों के राजहंसों की क्रीड़ा। इन सभी के बीच देह को आरोग्य के धन से रोग का क्रय करना ही होगा।  मृत्यु में इतना सब कुछ भयावह होते हुए भी यदि कुछ सौन्दर्य शेष है तो. . . . . . . . . . . .  मृत्यु वह प्रियसी है, जिसके आलिंगन मात्र से देह को वह तृप्ति प्राप्त होती है, जिसके लिए देह जीवन भर प्रयास कर