Purushartha Chatushtaya and The goal of human life. (पुरुषार्थ चतुष्टय और मानव जीवन का लक्ष्य)

 


पुरुषार्थ चतुष्टय

पुरुषार्थ :  पुरुष + अर्थ 

पुरुष : पुरि शरीरे शेते इति पुरुषः 

(चरकसंहिता/ शारीरस्थानम्/1/16 /चक्रपाणिदत्त व्याख्या)

अर्थ : यतः सर्व प्रयोजन सिद्धिः स अर्थः

‘‘पुरुषैः अर्थ्यते इति पुरुषार्थः’’

पुरुष जिस फल की इच्छा करे वह पुरुषार्थ है । 

धर्मश्चार्थश्च कामश्च मोक्षश्चेति महर्षिभिः। पुरुषार्थोऽयमुद्दिष्टश्चतुर्भेदः पुरातनैः। 

महर्षियों ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष यह चार प्रकार का पुरुषार्थ कहा है।

पुरुषार्थ चतुष्टय (धर्म) 

धर्म शब्द की व्युत्पत्ति :

'घृञ्’  धारणे धातु में ‘मप्’ प्रत्यय के योग से निष्पन्न धर्म शब्द का अर्थ हैं-

धर्मः ध्रियते लोकः अनेन इति धर्मः

वह तत्त्व जो धारण किये रहे, सम्भाले रहे, गिरने न दे, बिखरने न दे।

धर्म की परिभाषा :

वेदप्रणिहितं कर्म धर्मस्तन्मङ्गलं परम्‌ 

जो परम मङ्गलकारी कर्म वेदविहित है वह 'धर्म’ है ।

प्राप्रुबन्ति यतः स्वर्गमोक्षौ धर्मपरायणे। मानवा मुनिभिर्नूनं स धर्म इति कथ्यते॥

जिस कर्मके द्वारा मनुष्य स्वर्ग और मोक्षको प्राप्त होते हैं पूज्यपाद महर्षियोंने उसे धर्म कहा है ।

सत्त्ववृद्धिकरो योऽत्र पुरुषार्थोऽस्ति केवलः। धर्मशीले तमेवाहुर्धर्म केचिन्महर्षयः॥

जो पुरुषार्थ सत्त्वगुणको बढ़ानेवाला हो कोई-कोई महर्षि उसको धर्म कहते हैं।

धर्म का लक्षण :

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौच मिन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ॥ (मनुस्मृति : 6/92)

धृति (धैर्य अथवा धारणा शक्ति), क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य, अक्रोध – ये दस धर्म के लक्षण हैं ।

धर्म का व्यवहार सिद्धान्त :
  • गुणधर्म
  • वर्ण धर्म 
  • आश्रम धर्म 
  • सार्वभौम धर्म 
धर्म का लक्ष्य :

यतोऽभ्युदय-निःश्रेयससिद्धिः स धर्मः। (वैशेषिकदर्शनम् १.१) 

उन्नति और मोक्ष की सिद्धि धर्म से है।

अभ्युदयनिःश्रेयसहेतुः यः स धर्मो (श्रीमद्भगवद्गीता शांकरभाष्य) 

 उन्नति और मोक्ष का साक्षात्‌ हेतु धर्म है।

पुरुषार्थ चतुष्टय (अर्थ)

अर्थ शब्द की व्युत्पत्ति :

ऋ+थन् प्रत्यय के योग से ‘अर्थ’ शब्द बनता है 

जिसका तात्पर्य  - आशय, प्रयोजन, लक्ष्य, उद्देश्य, अभिलाषा व इच्छा है। 

अर्थ की परिभाषा :

यतः सर्वप्रयोजन सिद्धिः सोऽर्थः (नीतिवाक्यामृत – 2/1)

समस्त प्रयोजन जिससे सिद्धि हो वह अर्थ है ।

अर्थार्थं प्रवर्तते लोकः। (चाणक्य सूत्र 7 / 28)

जिसे सभी प्राप्त करना चाहते हैं, उसको अर्थ कहते हैं ।

अर्थ्यते सर्वेः इति अर्थः (चाणक्य सूत्र - 6 / 26)

जिसको प्राप्त करने की अभिलाषा सब करते है, उसको अर्थ कहते हैं । 

अर्थ का साधन : 

विद्या भूमि हिरण्य पशुधनधान्य भाण्डोपस्कर
मित्रावीनाम् अर्जनम् अर्जितस्य च विवर्धनम् अर्थः। (वात्स्यायन कामसूत्र :  1/2/10)

विद्या शिल्पं भृतिः सेवा गोरक्ष्यं विपणिः कृषिः । 
धृतिर्भैक्षं कुसीदं च दश जीवनहेतवः॥ (मनुस्मृति : 10/116)

कृषिर्वाणिज्यगोरक्षं शिल्पानि विविधानि च॥ (महाभारत शान्तिपर्व : 161/10)


अर्थ का प्रयोजन :

सुखस्य मूलं धर्मः। धर्मस्य मूलम् अर्थः।(चाणक्य सूत्र 1 / 2)

सुख का मूल धर्म है, और धर्म का मूल ‘अर्थ’ होता है ।

अर्थमूलौ ही धर्मकामाविति। (कौटिल्य अर्थशास्त्रम् :  1/6/1)

धर्म और काम का मूल ‘अर्थ’  है ।

पुरुषार्थ चतुष्टय (काम) 

काम शब्द की व्युत्पत्ति :

कम्+घञ् प्रत्यय के योग से ‘काम’ शब्द बनता है ।

अभिलाषशब्दे इच्छाशब्देचास्य विवृतिः।

जिसका तात्पर्य  - अभिलाषा व इच्छा है। 

काम की परिभाषा :
 
इन्द्रियाणां च पञ्चानां मनसो हृदयस्य च । विषये वर्तमानानां या प्रीतिरुपजायते । । स काम इति… (महाभारत वनपर्व – 34/37)

ज्ञानेन्द्रिय पञ्चक मन और बुद्धि की अपने विषय में प्रवृत्त होने के समय उत्पन्न होने वाली प्रीति का नाम काम है।

धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ । (श्रीमद्भगवद्गीता : 7.11)

प्राणियोंमें जो धर्मसे अविरुद्ध शास्त्रानुकूल कामना है जैसे देहधारणमात्रके लिये खानेपीनेकी इच्छा आदि वह ( इच्छारूप) काम भी मैं ही हूँ।

काम के भेद :

कामना-विषयश्च त्रिविधः वाह्याभ्यन्तरवासनामयभेदात् तत्र गृह-क्षेत्रादिकं शब्दादिविषयाश्च वाह्यविषयाः शारीरमानसिक-कर्म्मजातम् आभ्यन्तरः संघः स्वप्नहेतुकः वासनाययः
  • वाह्य : शारीरिक इच्छाएं 
  • आभ्यन्तर : मानसिक इच्छाएं  
  • वासना : स्वप्न इच्छाएं 
काम की श्रेष्ठता :

नवनीतं यथा दध्नस्तथा कामोऽर्थधर्मतः।
श्रेयस्तैलं च पिण्याकाद्धृतं श्रेय उदश्वितः । ।
श्रेयः पुष्पफलं काष्ठात्कामो धर्मार्थयोर्वरः । 
पुष्पतो मध्विव रसः कामात्सञ्जायते सुखम् । । (महाभारत शान्तिपर्व : 161/34-35)

दही का सार माखन है, उसी प्रकार धर्म और अर्थ का सार काम है । जैसे खली से श्रेष्ठ तेल है, तक्र से श्रेष्ठ घी है । वृक्ष के काष्ठ से श्रेष्ठ उसका फूल और फल है, उसी प्रकार धर्म और अर्थ दोनोंसे श्रेष्ठ काम है । 

पुरुषार्थ चतुष्टय (मोक्ष)

मोक्ष शब्द की व्युत्पत्ति :

'मुच्लृ मोचने' धातु में ‘घञ्’ प्रत्यय के योग से ‘मोक्ष’ शब्द तथा ‘क्तिन’ प्रत्यय के योग से ‘मुक्ति’ शब्द बनता है । 
जिसका तात्पर्य  - निवृत्त होना, छूट जाना, मुक्त हो जाना है। 

मोक्ष की परिभाषा :

मुच्यते सर्वदुःखबन्धनैर्यत्र सः मोक्षः

त्रिविध दुःख :  आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक
अष्ट पाश (बंधन) : घृणा, शंका, भय, लज्जा, जुगुप्सा, कुल, शील, जाति 

मोक्ष का साधन :

“ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः”

ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं 

“ज्ञानादेव तु कैवल्यमिति शास्त्रेषु  डिण्डिमः” (पञ्चदशी : 9/97)

मुक्ति ज्ञान से ही प्राप्त हो सकती है, यह शास्त्रों की घोषणा है।


मोक्ष के भेद : 



मानव जीवन का लक्ष्य 

न कर्मणाप्नोत्यनवाप्यमर्थ यदूभावि तद्वै भवतीति वित्त । 
त्रिवर्गहीनोऽपि हि विन्दतेऽर्थं तस्मादहो लोकहिताय गुह्यम्‌ ॥ (महाभारत शान्तिपर्व : 161/46)

मनुष्य कर्म द्वारा अप्राप्य अर्थ नहीं पा सकता। जो होना है, वही होता है; इस बात को तुम सब लोग जान लो। मनुष्य त्रिवर्गसे रहित होने पर भी आवश्यक पदार्थ को प्राप्त कर लेता है; अतः मोक्ष प्राप्ति का गूढ उपाय (ज्ञान) ही जगत का वास्तविक कल्याण करने वाला है ।

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