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शिव

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"शिव"  वह  न हर्ष है, न शोक  न जय है, न पराजय   न लाभ है, न हानि  न ही पृथ्वी, न आकाश  न जल, न अग्नि  वह तो जीवन और मृत्यु भी नहीं है।  विचार से परे वह शून्य भी तो नहीं है।   जन्म तो फिर कहें ही क्यों, क्योंकि वह तो अजन्मा भी नहीं है।  कुछ ने कहा वह गौर वर्ण है, कुछ ने उसे तमस का काल कहा।  कुछ ने मसान का विराम तो कुछ ने पुण्य प्रयाण कह दिया।  अभी अभी किसी ने उसे योगी कहा, तभी किसी और ने भोगी ..............  मुझे बताया गया कि वह संन्यासी है, पर उमा संग तो शायद गृहस्थ है ! कैलाश शिखर या रामेश्वर का तट कहाँ है, उसका निवास ? काशी के कण में या फिर गंगा के जल में ........  कहीं तो रमता होगा ? जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति ........  या तुरीय  क्या इनमें उसका अनुभव हैं ? या वह कारण का भी कारण ......... महाकारण है !   शायद वह कला ..... पूर्णकला या मात्र बिंदु है.........   पर वह तो घोर - महाघोर - ........ ? या अघोर है !  डमरू का "डं" या मात्र "बं" ताण्डव का क्वण  या समाधि का रण  मेरे शब्द   निःशब्द  

गुरु

 नमस्कार  आज  "गुरु" पर कुछ विशेष कहने का मन है।  भारत ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व का मानव समाज इस शब्द के आश्रित रहना चाहता है, या यह भी कह सकते हैं, कि प्रत्येक जीव जिसमें जीवन जीने और उन्नत होने का लेश मात्र भी भाव है, वह गुरु के आधीन रहना चाहता है।  ये हो सकता है, कि कोई स्वेच्छा से या कोई स्वार्थ या पराधीन होकर गुरु का आश्रय चाहे, परन्तु गुरु का आश्रय सभी की मनोवांछा है।  आखिर हम गुरु का आश्रय क्यों चाहते हैं ?  क्या केवल गुरु ही हमें उन्नत कर सकता ?  क्या गुरु के बिना हम उन्नति को प्राप्त नहीं कर सकते ?  या फिर गुरु का आश्रय मात्र मन का भ्रम है।  जो कुछ भी हो परन्तु गुरु का भाव होता बड़ा सुखद है। परन्तु क्या यह सुख का भाव उपरोक्त प्रश्नों का एक पूर्ण समाधान है ?  कम से कम मेरे व्यक्तिगत मत में तो गुरु के होने का सुख ही पर्याप्त है। क्योंकि जब हम किसी प्रिय भोजन का सेवन करते हैं, तो ये जानने में हम अपना समय और श्रम व्यर्थ नहीं करते की यह भोजन किसने और कैसे बनाया है, शायद  कभी कभी ये जानने का प्रयास भी करें परन्तु अंत तो भोजन का आस्वादन कर तृप्त होने

योग

योग को सहजता से जानने के लिए आवश्यक है, जीवन की सरलता। जीवन जितना सरल होगा आप योग के उतने ही समीप होंगे। योग जीवन के उन विचारों का पुंज मात्र है, जिन विचारों का लक्ष्य उन्नयन की स्वतंत्रता है। अब ये आप पर निर्भर करता है, कि आपका उन्नयन किस दिशा की ओर है। देश, काल, परिस्थिति भी सम्भवतः आपके उन्नयन को प्रभावित करें किन्तु आप देश, काल, और परिस्थिति के संघर्ष को कितनी सरलता से स्वीकार कर पाते हैं, ये निर्भर करता है, आपकी बुद्धि पर। बुद्धि का प्रवाह सकारात्मक भी हो सकता है, और नकारात्मक भी। अब ये भी आप पर निर्भर करता है, कि आप बुद्धि को सकारात्मक रखना चाहते हैं, या नकारात्मक। बुद्धि की नकारात्मकता से तात्पर्य ये बिल्कुल नहीं की आप विनाश के अभिलाषी है, अपितु नकारात्मक बुद्धि तो निहित है, विवेक की अभिलाषा पर - या तो आप विवेक के अभिलाषी हैं, या सामान्यतः नहीं।   तो आपके विवेक की अभिलाषा ही कारण है, आपकी सकारात्मक बुद्धि की- ये ही कारण है, आपके संघर्ष की क्षमता की - ये ही कारण है, आपके उन्नयन की दिशा की - ये ही कारण है, आपके स्वातंत्र्य विचारों की - ये ही कारण है, आपके जीवन की सरलता की - और