Yoga: Etymology, definitions (Patanjala Yoga Sutra, Bhagwad Gita & Kathopanishad), aim, objectives and misconceptions. (❖ योग - शब्द व्युत्पत्ति ❖परिभाषा (पातञ्जल योगसूत्र, श्रीमद्भगवद्गीता, कठोपनिषद्) ❖योग का लक्ष्य ❖योग का उद्देश्य ❖योग में भ्रांतियां)
मन का विकास करो और उसका संयम करो,
उसके बाद जहाँ इच्छा हो, वहाँ इसका
प्रयोग
करो-उससे अति शीघ्र फल प्राप्ति होगी। यह है
यथार्थ आत्मोन्नति का उपाय। एकाग्रता सीखो,
और जिस ओर इच्छा हो, उसका प्रयोग करो।
ऐसा करने पर तुम्हें कुछ खोना नहीं पड़ेगा। जो
समस्त को प्राप्त करता है, वह अंश को
भी प्राप्त कर सकता है।
: स्वामी विवेकानन्द :
योग - शब्द व्युत्पत्ति
पाणिनि संस्कृत व्याकरण (अष्टाध्यायी) के अनुसार ‘योग’ शब्द
“युज्” धातु में “घञ्” प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है।
यह “युज्” धातु दिवादि, रुधादि, एवं चुरादि
गणों में अलग अलग अर्थों में प्रयोग की जाती है ।
१. युज् समाधौ (दिवादिगण) द्वारा समाधि अर्थ में
२. युज् संयमने (चुरादिगण) द्वारा संयमन अर्थ में
३. युजिर् योगे (रुधादिगण) द्वारा
संयोग अर्थ में
उपरोक्त आधार पर ‘योग‘ शब्द की
व्युत्पत्ति निम्न प्रकार से की जा सकती है।
1. युज्यते एतद् इति योगः - योग शब्द
का अर्थ चित्त की वह अवस्था है जब चित्त की समस्त वृत्तियों में एकाग्रता आ जाती
है। यहाँ पर ’योग’ शब्द का उद्देश्य के अर्थ में प्रयोग हुआ है।
2. युज्यते अनेन इति योगः - योग शब्द
का अर्थ वह साधन है जिससे समस्त चित्तवृत्तियों में एकाग्रता लाई जाती है। यही
’योग’ शब्द साधनार्थ प्रयुक्त हुआ है।
3. युज्यते तस्मिन् इति योगः - योग
शब्द का अर्थ वह स्थान है, जहाँ चित्त की वृत्तियाँ की
एकाग्रता उत्पन्न की जाती है।
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। (योगसूत्र
1/2)
योग = चित्तवृत्तिनिरोध
परिभाषा (श्रीमद्भगवद्गीता)
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं
त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा
समत्वं योग उच्यते।।2.48।।
हे धनञ्जय ! तू आसक्ति का त्याग करके सिद्धि- असिद्धि में सम होकर योग में स्थित हुआ कर्मों को कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है।
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे
सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु
कौशलम्।।2.50।।
समत्वबुद्धि युक्त पुरुष यहां (इस जीवन में) पुण्य और पाप इन दोनों कर्मों को त्याग देता है। इसलिये तुम योग से युक्त हो जाओ। कर्मों में कुशलता योग है।।
तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं
योगसंज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो
योगोऽनिर्विण्णचेतसा।।6.23।।
वह विद्या जिससे, दु:ख के संयोग से वियोग हो, उसी को 'योग' नाम से जानना चाहिये। उस विद्या का
अभ्यास न उकताये हुए चित्त से (धैर्य और उत्साह से युक्त) निश्चयपूर्वक करना चाहिये।।
नोट: यहाँ पर विद्या से तात्पर्य
ध्यानयोग से है
परिभाषा (कठोपनिषद्)
यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा
सह ।
बुद्धिश्च न विचेष्टते तामाहुः
परमां गतिम् ॥
तां योगमिति मन्यन्ते
स्थिरामिन्द्रियधारणाम् ।
अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि
प्रभवाप्ययौ ॥
(अध्याय २/ वल्ली ३/ मंत्र १०-११)
जब पाँचों इन्द्रियाँ मन के साथ
स्थिर हो जाती है और बुद्धि निश्चेष्ट अर्थात् स्थिर हो जाती है तब इसे सर्वोच्च
पद प्राप्त हुआ मानते हैं। इन्द्रियों की स्थिर धारणा योग की अवस्था है। इस स्थिति
को प्राप्त हुआ योगी प्रमाद रहित हो जाता है, मन के इस दृढ़ निग्रह को ही योग की
संज्ञा दी जाती है।
योग का उद्देश्य
1. षड्रिपुओं से मुक्त होना : काम (lust) , क्रोध (anger), लोभ (greed), मोह (attachment), मद (ego), मात्सर्य (jealousy)
2. त्रिविध दुःखों से मुक्त होना : आध्यात्मिक दुःख, आधिभौतिक, आधिदैविक
3. आत्मिक आनन्द की प्राप्ति
3. समग्र स्वास्थ्य की प्राप्ति : शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आध्यात्मिक
योग का लक्ष्य :
1. समाधि =
2. मुक्ति =
योग में भ्रांतियां
1. योग केवल हिंदुओं के लिए है।
2. महर्षि पतञ्जलि ने योग की खोज की
है।
3. योग और ध्यान दो अलग अलग विधाएँ
हैं।
4. ज्ञान-कर्म-भक्ति आदि मार्गों का
लक्ष्य अलग अलग है।
5. योग केवल आसन है और यह शरीर के लिए
ही है।
6. योग का उद्देश्य चिकित्सा मात्र है।
7. योग करने के लिए हमें लचीला होना
चाहिए।
8. योग केवल युवाओं के लिए है।
9. योग खतरनाक या बहुत आसान है।
10. योग करने के लिए आपको शाकाहारी
होना चाहिए।
11. योग केवल उन लोगों के लिए है जो
संसार का त्याग करते हैं।
12. योग कोई भी सिखा सकता है।
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