मन का विकास करो और उसका संयम करो , उसके बाद जहाँ इच्छा हो , वहाँ इसका प्रयोग करो-उससे अति शीघ्र फल प्राप्ति होगी। यह है यथार्थ आत्मोन्नति का उपाय। एकाग्रता सीखो , और जिस ओर इच्छा हो , उसका प्रयोग करो। ऐसा करने पर तुम्हें कुछ खोना नहीं पड़ेगा। जो समस्त को प्राप्त करता है , वह अंश को भी प्राप्त कर सकता है। : स्वामी विवेकानन्द : योग - शब्द व्युत्पत्ति पाणिनि संस्कृत व्याकरण (अष्टाध्यायी) के अनुसार ‘योग’ शब्द “युज्” धातु में “घञ्” प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है। यह “युज्” धातु दिवादि , रुधादि , एवं चुरादि गणों में अलग अलग अर्थों में प्रयोग की जाती है । १. युज् समाधौ (दिवादिगण) द्वारा समाधि अर्थ में २. युज् संयमने (चुरादिगण) द्वारा संयमन अर्थ में ३. युजिर् योगे (रुधादिगण) द्वारा संयोग अर्थ में उपरोक्त आधार पर ‘योग‘ शब्द की व्युत्पत्ति निम्न प्रकार से की जा सकती है। 1. युज्यते एतद् इति योगः - योग शब्द का अर्थ चित्त की वह अवस्था है जब चित्त की समस्त वृत्तियों में एकाग्रता आ जाती है। यहाँ पर ’योग’ शब्द का उद्देश्य के अर्थ म...